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कार्यक्षेत्र में महिलाओं की सहभागिता

  • 28th April, 2020

पृष्ठभूमि

  • विश्व महिला दिवस के अवसर पर गैर-सरकारी संगठन ‘आज़ाद फाउंडेशन’ ने एक रिपोर्ट के हवाले से कहा, वर्ष 2019 में देश में महिला कर्मचारियों की संख्या घटकर 18% रह गई है, 2006 में यह 37% थी।
  • विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum-WEF) की ‘वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट’ में आर्थिक भागीदारी के मामले में भारत इस वर्ष 153 देशों की सूची में 149वें स्थान पर रहा। इस रिपोर्ट के मुताबिक, श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने से भारत की जी.डी.पी. में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है।
  • वेतन में लैंगिक असमानता, सामाजिक सुरक्षा की कमी तथा अनौपचारिक (घरेलू) कार्यों की अधिकता इत्यादि मुद्दे भारत में लैंगिक समानता तथा महिला सशक्तीकरण की राह में प्रमुख चुनौतियाँ हैं।
  • विगत कुछ वर्षों से, अधिकाधिक महिलाओं ने अकादमिक अध्ययन हेतु विज्ञान, इंजीनियरिंग तथा गणित जैसे पाठ्यक्रमों को न सिर्फ चुना है बल्कि वे इन पाठ्यक्रमों से जुड़े पेशों में एक सक्षम कार्यबल के रूप में जुड़ना चाहती हैं।
  • साथ ही, विवाह के पश्चात्, प्रजनन के दौरान तथा माँ बनने के बाद महिलाओं में ड्रॉपआउट (पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने) की दर भी अधिक है। यद्यपि, वर्तमान में घर या क्रैच से कार्य करने के विकल्प भी उपलब्ध हैं, तथापि इस दिशा में अभी बहुत-कुछ किये जाने की आवश्यकता है।

रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष

  • भारत में शोध क्षेत्र में 79% महिलाएँ हैं। साथ ही, महिलाओं के पास लगभग 56% स्नातक और 42% शोध डिग्रियाँ हैं।
  • भारत में, कोई भी रोज़गार श्रेणी (संविदा/स्थाई/दिहाड़ी), क्षेत्र (संगठित या असंगठित) अथवा स्थान (शहरी या ग्रामीण) हो, महिला श्रमिकों को अपेक्षाकृत कम वेतन मिलता है।
  • भारत में, महिला-पुरुष के वेतन में लैंगिक अंतर 34% है, यानी समान योग्यता वाले रोज़गार में पुरुषों की तुलना में महिलाओं को 34 फीसदी कम वेतन मिलता है।
  • अगर संगठित क्षेत्र की बात करें, तो उच्च सेवाओं में भी उन्हें पुरुष समकक्षों की तुलना में कम वेतन दिया जाता है। हालाँकि, यहाँ पर कार्यरत महिलाएँ कुल महिला कार्यबल का केवल 1% हैं; साथ ही, यहाँ वेतन में लैंगिक अंतर सबसे कम भी है क्योंकि यहाँ पर महिलाएँ अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं।
  • साथ ही, कुशल श्रमिकों में वेतन का अंतर अपेक्षाकृत कम है, जबकि अर्ध-कुशल या अकुशल श्रमिकों में यह अधिक है। इसी प्रकार, सार्वजनिक और निजी लिमिटेड कंपनियों में भी वेतन में लैंगिक अंतर कम है।
  • यद्यपि रोज़गार प्राप्ति में असमानता अवश्य बढ़ी है, परीक्षा में लड़कों की तुलना में बेहतर अंक प्राप्त करने वाली लड़कियों को उन लड़कों की तुलना में अच्छी नौकरी कम ही मिल पाती है।
  • अगर कृषि की बात करें तो पुरुष और महिला कामगार दोनों में ही इसके प्रति विमुखता दृष्टिगत होती है, यद्यपि लगभग 75 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएँ अभी भी कृषि में संलग्न हैं। दरअसल, पितृसत्तात्म्क सोच और स्थानीय सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराएँ महिलाओं को उसी जगह तक सीमित कर देती हैं जहाँ कृषि उनकी आजीविका का सर्वप्रमुख (लेकिन अपर्याप्त) स्रोत है।
  • महिलाओं में कृषि-संलग्नता अधिक होने की मुख्य वजह यह है कि पुरुषों द्वारा कृषिकार्य को छोड़कर अन्य व्यवसायों में चले जाने से महिलाओं में खेती की ज़िम्मेदारी लेने की प्रवृत्ति बढ़ी है। साथ ही, घर को सुचारू रूप से चलाने के लिये वे मज़दूरी की ओर भी उन्मुख हुई हैं।

रोज़गार में महिलाओं की भागीदारी में गिरावट के कारण

  • महिलाओं कि भागीदारी में गिरावट के गैर-आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारण भी हैं। जब पारिवारिक आय में वृद्धि होती है या जब पति या पत्नी दोनों ही कमाते हैं तो बच्चा होने की स्थिति में अक्सर देखा जाता है कि महिलाएँ परिवार की देखभाल के लिये काम छोड़ देती हैं।
  • सरकार की रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब है। वहाँ न सिर्फ कृषि के क्षेत्र में कमी आ रही है, बल्कि विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में भी कार्य बहुत शिथिल तरीके से हो रहा है, जिस वजह से वहाँ महिलाओं में पिछड़ापन बहुत ज़्यादा देखा जा रहा है।
  • इनके अलावा, प्रच्छन्न बेरोज़गारी भी एक गम्भीर मुद्दा है। घरेलू दुकानों पर या खेतों में काम करने के बाद भी महिलाओं को वेतन या कमाई में हिस्सेदारी नहीं मिलती है।
  • पितृसत्तात्मक समाज होने के कारण बच्चों की परवरिश और उनकी देखभाल का बोझ महिलाओं पर ही डाला जाता है। इसके आलावा, ससुराल के बुजुर्गों की देखभाल की ज़िम्मेदारी भी महिलाओं पर ही डाल दी जाती है।
  • महिलाओं को 26 सप्ताह के (सवैतनिक) मातृत्व अवकाश का कानून भी इस दिशा में एक बड़ी बाधा बन रहा है क्योंकि इस अवकाश के बाद अक्सर महिलाएँ वापस नौकरी पर कम ही आ पाती हैं, क्योंकि वे बच्चों के पालन-पोषण में ही लग जाती हैं। एक अध्ययन के अनुसार, इस वजह से कई बार कम्पनियाँ महिलाओं को नौकरी देने में आनाकानी करती हैं या अक्सर यह मांग रखती हैं कि काम करने के दौरान वे शादी नहीं करेंगी या बच्चे नहीं पैदा करेंगी।
  • टियर 1 और टियर 2 शहरों में महिलाओं कि सुरक्षा भी एक प्रमुख मुद्दा है।
  • कार्य स्थलों पर सुरक्षा और उत्पीड़न भी एक बड़ा मुद्दा है।
  • कृषि के मशीनीकरण कि वजह से भारतीय कृषि के संरचनात्मक परिवर्तन से महिला कृषि मज़दूरों की मांग भी कम हुई है।
  • इनके अतिरिक्त, अक्सर भारतीय परिवारों में महिलाओं के आगे शादी से पहले नौकरी छोड़ने की शर्त भी रख दी जाती है।

सतत् विकास के लिये 2030 के एजेंडे तथा सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये अर्थव्यवस्था में महिलाओं का सशक्तीकरण और कार्य क्षेत्र में लैंगिक भेदभाव रोकना बहुत ज़रूरी है। इस परिप्रेक्ष्य में जिन सतत् विकास लक्ष्यों पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा वे निम्न हैं –

    • लक्ष्य 5 , लैंगिक समानता प्राप्त करने के लिये।
    • लक्ष्य 8 - सभी के लिये सामान रोज़गार एवं रोज़गारपरक परिस्थितियाँ।
    • लक्ष्य 1- गरीबी समाप्त करना।
    • लक्ष्य 2- खाद्य सुरक्षा।
    • लक्ष्य 3- स्वास्थ्य सेवाएँ सुनिश्चित करना।
    • लक्ष्य 10- असमानताओं को कम करना।
  • अधिक महिलाओं के काम करने से अर्थ व्यवस्था में सुधार देखा गया है क्योंकि महिलाओं का आर्थिक सशक्तीकरण उत्पादकता को बढ़ाता है तथा अन्य सकारात्मक विकास परिणामों के अलावा आर्थिक विविधीकरण और आय समानता को भी बढ़ाता है।
  • उदाहरण के लिये, यदि ओ.ई.सी.डी. देशों में स्वीडन की तरह महिला रोज़गार दर में वृद्धि की जाए तो यह जी.डी.पी. को 6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक बढ़ा सकता है।

कार्य क्षेत्र में महिला सहभागिता के लाभ

  • महिलाओं में किसी भी स्थिति या अवस्था को देखने या समझने का एक अलग नज़रिया होता है, यह उन्हें विशेष और महत्त्वपूर्ण बनाता है।
  • यदि महिलाओं को उनके काम के सापेक्ष वेतन मिलेगा, तो यह उन्हें बिना किसी लैंगिक भेदभाव के यह भारत की राष्ट्रीय आय के बढ़ोत्तरी में भी योगदान देगा।
  • एक अनुमान के मुताबिक, अगर महिलाओ की कार्यबल में भागीदारी पुरुषों के बराबर हो जाए तो जी.डी.पी. 20% तक बढ़ सकती है।
  • कहते हैं, जब एक स्त्री शिक्षित होती है तो पूरा परिवार शिक्षित होता है; उसी प्रकार, कोई महिला अपने कार्यक्षेत्र में जिन सकारात्मक अनुभवों से गुज़रती है, उन्हें वह अपने परिवार, विशेषकर बच्चों को भी बहुत बेहतर तरीके से समझा और सिखा सकती है।
  • घरेलू कार्यों में निर्णय लेने की शक्ति पर महिलाओं का नियंत्रण बढ़ता है।

क्या हो आगे कि राह?

  • जिस तरह विज्ञान को सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों की आवश्यकता है, वैसे ही एक सशक्त अर्थव्यवस्था को लैंगिक रूप से संतुलित कार्यबल की आवश्यकता है।
  • महिलाओं को कार्य क्षेत्र में विश्वास चाहिये; साथ ही, पूंजी तक उनकी पहुँच भी ज़रूरी है। पुरुषों को यह समझने की ज़रूरत है कि महिलाएँ उनके बराबर ही हैं, उनसे कमज़ोर नहीं।
  • इस दिशा में जापानी प्रधान मंत्री शिंज़ो आबे की पहल भारत के लिये अनुकरणीय है, उन्होंने आर्थिक पुनरुद्धार रणनीतियों के एक प्रमुख घटक के रूप में महिलाओं को शादी करने या माँ बनने के बाद फिर से रोज़गार देने के लिये आधा मिलियन सरकारी वित्त पोषित क्रेच बनाने की पहल की थी।
  • माध्यमिक शिक्षा में लैंगिक समानता पर संचार कार्यक्रम छात्रों को समान लैंगिक मापदंडों को समझने में मदद करते हैं।
  • बच्चे की देखभाल की ज़िम्मेदारी माता-पिता दोनों को लेनी चाहिये।
  • इनके अतिरिक्त, कार्यक्षेत्र में मातृत्व लाभ के आलावा अन्य बहुत से सुधार किये जाने की आवश्यकता है।
  • साथ ही, महिलाओं को आयकर लाभ देना महिला कार्यबल की भागीदारी को बढ़ाने के लिये एक प्रभावी कदम हो सकता है।
  • विधानमंडल और सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की निर्णय लेने की क्षमता और सम्भावना बढ़ाने से उनका राजनीतिक सशक्तीकरण भी होगा।
  • स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया जैसी पहलों और कॉरपोरेट बोर्ड से लेकर पुलिस बल तक की नई लिंग आधारित कोटा व्यवस्था एक सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। वस्तुतः अब हमें कौशल प्रशिक्षण और नौकरियों में ज़्यादा निवेश करने की आवश्यकता है।
  • अधिक महिलाओं को कार्य क्षेत्र में कार्यबल के रूप में शामिल करना, संरचनात्मक सुधारों को और अधिक गति देगा जो अधिक रोज़गार पैदा करने में मदद कर सकते हैं, यह भारत के लिये भविष्य में विकास का एक बड़ा स्रोत होगा। इस प्रकार, भारत अपनी बड़ी और युवा श्रम शक्ति से ‘जनसांख्यिकीय लाभांश’ के लाभों को प्राप्त करने में सक्षम भी होगा।


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