
‘कम्बाला’ एक भैंस दौड़ है। परम्परागत रूप से इसे तुलुव ज़मीदारों द्वारा दक्षिणी कर्नाटक, उडुपी और कासरगोड (केरल) में आयोजित किया जाता था। इस सामूहिक क्षेत्र को ‘तुलु नाडु’ कहा जाता है।
- कम्बाला का आयोजन प्रतिवर्ष नवम्बर से मार्च माह के मध्य धान के खेतों व अन्य समानांतर रेसट्रैक पर होता है।
- यह किसानों के लिये एक मनोरंजक खेल होने के साथ-साथ अच्छी फसल हेतु देवताओं को प्रसन्न करने के लिये आयोजित की जाती है।
- प्रारम्भ में कम्बाला प्रथा नाथ पंथ से प्रभावित थी। कुछ स्थानों पर कोरागा समुदाय के पुरुष परम्परागत नृत्य करते हैं और विशेष प्रकार की बैंड ‘डूडी’ के लिये गीत गाते हैं। कम्बाला में एक विशेष प्रकार के चावल-हलवा, (जिसे कंदल आदी कहते हैं) का वितरण किया जाता है।
- परम्परागत रूप से कम्बाला के प्रमुख प्रकार- पुकेरे कम्बाला, बारे कम्बाला, अरासु कम्बाला, कोरी कम्बाला और देवेरे कम्बाला हैं।
- कम्बाला में प्रयुक्त प्रमुख उपकरण / वस्तुएँ -
नेगिलु : धावक के पास विशेष प्रकार का हल।
हग्गा (रस्सी) : एक रस्सी जो भैंसों के जोड़े से बँधी होती है।
पवाडे : भैंस की पीठ ढकने के लिये प्रयुक्त विशेष तौलिया।
- तमिलनाडु में जनवरी माह में मट्टू पोंगल के दिन प्रचलित जल्लीकट्टू भी इसी प्रकार की प्रथा है, जिसमें बैल दौड़ का आयोजन किया जाता है।
- पशु क्रूरता रोकथाम अधिनियम,1960 के अंतर्गत कई संगठनों ने इस प्रकार के आयोजनों पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है।
- तुलु नाडू क्षेत्र के लिये अलग राज्य की मांग का आन्दोलन भी चल रहा है।